Tuesday, June 2, 2015

यादों का बोझ

 बचपन की कुछ यादें अनायास ही याद आ जाती हैं। पर ऐसा आभास होता है, क्या ये मेरी ही यादें हैं? कहीं  कल हृषि दा की कोई movie देख ली हो पीते पीते और उसका कोई scene चल रहा हो मेरे अवचेतन मंन में। मेरे जैसा कोई बच्चा रो रहा था और तभी पिताजी आ के सर पे हाथ रख कर कहते। "रोता काहे है?" और वो बच्चा (या मैं) रोता ही रहता। 
पिताजी फिर एक थपकी देते पीठ में और कहते "एक  कविता सुनो। अमिताभ के पिताजी ने लिखी है।"
आज वोही कविता याद आ रही है और अपने रौबीले पिताजी।

जो बीत गई सो बात गई (हरिवंशराय बच्चन)

जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई।।

ख़त्म होते ही वो बच्चा आँसू पौंछ लेता है पर मैं अभी इन्हें बहने देता हूँ। यादों का बोझ हलका होता सा मालूम पड़ता है।

Friday, June 20, 2014

तेरे बारे में जब सोचा नहीं था

"तेरे बारे में जब सोचा नहीं था। मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था। "

१२:३० A M :
बैकग्राउंड में ये ग़ज़ल चल रही है। मैं अकेला हूँ और single malt scotch whiskey का शायद तीसरा जाम् है। और फिर एक automated process की तरह मेरे ख्याल तुम्हारी यादों को run करने लगे। 
बड़ी हिम्मत के बाद मैंने तुम्हारा आखरी ख़त निकाला। और हमेशा की तरह आख़िरी line तक नहीं पहुँच पाया। आँखें भर आई थीं। "तुम कभी खुश नहीं रहोगे। मेरी तरह तुम्हे और कोई नहीं चाहेगा। " यहीं तक।
    मैं चुप चाप सुनता गया और अनायास ही मेरा सर झुक गया। Guilt(अपराध बोध) से निकलने का कोई रास्ता नहीं है सिवाय इसके की उसको स्वीकार कर लेना। इसीलिए शायद मेरे ज़ेहन ने इस बात को स्वीकार कर लिया है।

१:३० A M :
    अभी भी वोही ग़ज़ल चल रही है। और अभी भी वो खत मेरे दायें हाथ में है। बायें में छठवां ज़ाम है।

२ A M :
    कौन सोचता है इतना। glass नीचे रखा और दिमाग़ ख़ाली  करने को बैंगलोर की रात की walk से अच्छा क्या होगा। दबे पाऊं building से बाहर आ गया हूँ। डगमगाते क़दमों से धीरे धीरे चला तो पता नहीं कितनी दूरी पे एक बेंच मिलीं। उसपे बैठ गया हूँ।

४ A M :
    वापस flat में आ गया हूँ और वोही ग़ज़ल चल रही है लैपटॉप पे।

तेरे बारे में जब सोचा नहीं था
मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था
तेरे बारे में जब ...

तेरी तस्वीर से करता था बातें
मेरे कमरे में आईना नहीं था
मैं तन्हा था ...

समंदर ने मुझे प्यासा ही रखा
मैं जब सहरा में था प्यासा नहीं था
मैं तन्हा था ...

मनाने रूठने के खेल में हम
बिछड़ जाएंगे ये सोचा नहीं था
मैं तन्हा था ...

सुना है बंद कर लीं उसने आँखें
कई रातों से वो सोया नहीं था
मैं तन्हा था ...

Wednesday, June 4, 2014

बावरा मन देखने चला एक सपना

बावरे से मन की देखो बावरी हैं बातें
बावरी से धड़कने हैं, बावरी हैं साँसें
बावरी सी करवटों  से, निंदिया दूर भागे
बावरे से नैन चाहे, बावरे झरोखों से, बावरे नजारों को तकना
बावरा मन देखने चला एक सपना

बावरे से इस जहाँ मैं बावरा एक साथ हो
इस सयानी भीड़ मैं बस हाथों में तेरा हाथ हो
बावरी सी धुन हो कोई, बावरा एक राग हो
बावरे से पैर चाहें, बावरें तरानो के, बावरे से बोल पे थिरकना
बावरा मन देखने चला एक सपना

बावरा सा हो अंधेरा, बावरी खामोशियाँ
थरथराती लौ हो मद्धम, बावरी मदहोशियाँ
बावरा एक घुंघटा चाहे, हौले हौले बिन बताये, बावरे से मुखड़े से सरकना
बावरा मन देखने चला एक सपना

--- स्वानंद किरकिरे

https://www.youtube.com/watch?v=QNB4ah9r79M

Thursday, May 8, 2014

मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता

गुलज़ार। दो बार सुना है इनको। इनकी कवितायेँ मेरे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार मैं पले बड़े लडके क़ी भावनाओँ को शब्द देते हैं। ये शब्द पड़े नहीं जिए जाते हैँ।
मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता

वो कमरे बंद हैं कबसे
जो 24 सीढियां जो उन तक पहुँचती थी, अब ऊपर नहीं जाती

मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता
वहाँ कमरों में, इतना याद है मुझको
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे
बहुत से तो उठाने, फेंकने, रखने में चूरा हो गए

वहाँ एक बालकनी भी थी, जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था, तोता, वो रोज़ आता था
उसको एक हरी मिर्ची खिलाता था

उसी के सामने एक छत थी, जहाँ पर
एक मोर बैठा आसमां पर रात भर
मीठे सितारे चुगता रहता था

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं,
वो नीचे की मंजिल पे रहते हैं
जहाँ पर पियानो रखा है, पुराने पारसी स्टाइल का
फ्रेज़र से ख़रीदा था, मगर कुछ बेसुरी आवाजें करता है
के उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं, सुरों के ऊपर दूसरे सुर चढ़ गए हैं

उसी मंज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहाँ पुरखों की तसवीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था, हवा फिर टेढा कर जाती

बहू को मूछों वाले सारे पुरखे क्लीशे [Cliche] लगते थे
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा, पुराने न्यूज़ पेपर में
उन्हें महफूज़ कर के रख दिया था
मेरा भांजा ले जाता है फिल्मो में
कभी सेट पर लगाता है, किराया मिलता है उनसे

मेरी मंज़िल पे मेरे सामने
मेहमानखाना है, मेरे पोते कभी
अमरीका से आये तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं वो जितनी बार आते
हैं, ख़ुदा जाने वही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ बंद
है, जहाँ बत्ती नहीं जलती, वहाँ एक
रोज़री रखी है, वो उससे महकता है,
वहां वो दाई रहती थी कि जिसने
तीनों बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी, मरी तो मैंने
दफनाया नहीं, महफूज़ करके रख दिया उसको.

और उसके बाद एक दो सीढिया हैं,
नीचे तहखाने में जाती हैं,
जहाँ ख़ामोशी रोशन है, सुकून
सोया हुआ है, बस इतनी सी पहलू में
जगह रख कर, के जब मैं सीढियों
से नीचे आऊँ तो उसी के पहलू
में बाज़ू पे सर रख कर सो जाऊँ

मकान की ऊपरी मंज़िल पर कोई नहीं रहता.


गुलज़ार

Tuesday, December 3, 2013

कहा नहीं था अब न मिलेंगे कभी।

संतला माता मंदिर - देहरादून 


कहा नहीं था अब न मिलेंगे कभी।
पर ऐसा कौन सा पल है जो तुमसे अलग करके जिया है मैंने।
एक वादी में झाँक के देखा तो तुम मिले। 
एक सूरज को ढलते देखा तो तुम मिले। 
एक नींद में सपना देखा तो तुम मिले।
एक नींद में सपना टूटा तो तुम मिले। 
लहर किनारे से टकरायी तो तुम मिले। 
कोई हंसा तो तुम और कोई रोया तो भी तुम।
मैंने तो कहा ही था कि अब न मिलेंगे।
पर तेरी याद का कोहरा इतना घना है,
कि कोई पल अनजाने में टकरा ही  जाता है। 

मैंने तो कहा ही था कि अब न मिलेंगे।


--- अतुल रावत



Monday, December 2, 2013

तेरे उतारे हुए दिन ...

सरल और सीधी हिंदी में गुलज़ार कभी कभी हमारी याद, स्वप्न या भावनाओं को शब्द दे देते हैं। ऐसा लगता है ये तो मैंने सोचा था। येही एक अच्छे कलाकार की पहचान है शायद। शब्द दे देना ख्यालों को। और भी ऐसी काफी कवितायेँ या नज़्म है गुलज़ार साहब कि जो मैं पोस्ट करता रहूँगा।     
नीचे मेरी पसंदीदा कविताओं/ख़यालों में से एक 

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं लॉन(lawn) में अब तक
वो पुराने हुए हैं
उन का रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलाइची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफ़ी देता है
गिलेरिओं को बुला कर खिलाता हूँ बिस्कुट 
गिलेरियाँ मुझे शक की नज़र से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस जानती होंगी….
कभी कभी जब उतरती है चील शाम की छत से
थकी थकी सी 
ज़रा देर लॉन में रुक कर
सफेद और गुलाबी मुसुन्ढ़े के पौधों में घुलने लगती है
के जैसे बर्फ का टुकरा पिघलता जाये व्हिस्की में
मैं स्कार्फ़ दिन का गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन के अब भी मैं
तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं लॉन में अब तक
वो पुराने हुए हैं
उन का रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी।

--- गुलज़ार

Saturday, June 22, 2013

तुम्हें पता है





















तुम्हें पता है अब मैं ज्यादा बहुत देर तक खुश नहीं रह पता।
ये खुशियाँ मुझे सौतेली सी लगती है।

तुम्हें पता है मेरे चेहरे पे जो लकीरें हैं ये उदासी की नहीं।
रस्साकस्सी है दिल और दिमाग की।

तुम्हें पता है अब प्यार हिसाब पूछ के किया जाता है।
कितने का प्यार कर पाओगे तुम,केवल 40-50 हज़ार तक।

तुम्हें पता है मेरी हथेलियाँ अब भी गर्म रहती हैं।
पर अब ये गरमाहट हथेलीयाँ जलाती हैं।

तुम्हें पता है अब मेरे बाएँ हाथ की तरफ़ कोई नहीं चलता।
मैं सबको दाएँ तरफ रखता हूँ।

तुम्हें पता है अब किसी को मेरी धड़कन सुनायी नहीं देती।
अब सीने से लगके भी कोई इन्हें सुन नहीं पाता।

तुम्हें पता है।

--- अतुल रावत