Tuesday, December 3, 2013

कहा नहीं था अब न मिलेंगे कभी।

संतला माता मंदिर - देहरादून 


कहा नहीं था अब न मिलेंगे कभी।
पर ऐसा कौन सा पल है जो तुमसे अलग करके जिया है मैंने।
एक वादी में झाँक के देखा तो तुम मिले। 
एक सूरज को ढलते देखा तो तुम मिले। 
एक नींद में सपना देखा तो तुम मिले।
एक नींद में सपना टूटा तो तुम मिले। 
लहर किनारे से टकरायी तो तुम मिले। 
कोई हंसा तो तुम और कोई रोया तो भी तुम।
मैंने तो कहा ही था कि अब न मिलेंगे।
पर तेरी याद का कोहरा इतना घना है,
कि कोई पल अनजाने में टकरा ही  जाता है। 

मैंने तो कहा ही था कि अब न मिलेंगे।


--- अतुल रावत



Monday, December 2, 2013

तेरे उतारे हुए दिन ...

सरल और सीधी हिंदी में गुलज़ार कभी कभी हमारी याद, स्वप्न या भावनाओं को शब्द दे देते हैं। ऐसा लगता है ये तो मैंने सोचा था। येही एक अच्छे कलाकार की पहचान है शायद। शब्द दे देना ख्यालों को। और भी ऐसी काफी कवितायेँ या नज़्म है गुलज़ार साहब कि जो मैं पोस्ट करता रहूँगा।     
नीचे मेरी पसंदीदा कविताओं/ख़यालों में से एक 

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं लॉन(lawn) में अब तक
वो पुराने हुए हैं
उन का रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलाइची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफ़ी देता है
गिलेरिओं को बुला कर खिलाता हूँ बिस्कुट 
गिलेरियाँ मुझे शक की नज़र से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस जानती होंगी….
कभी कभी जब उतरती है चील शाम की छत से
थकी थकी सी 
ज़रा देर लॉन में रुक कर
सफेद और गुलाबी मुसुन्ढ़े के पौधों में घुलने लगती है
के जैसे बर्फ का टुकरा पिघलता जाये व्हिस्की में
मैं स्कार्फ़ दिन का गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन के अब भी मैं
तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं लॉन में अब तक
वो पुराने हुए हैं
उन का रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी।

--- गुलज़ार

Saturday, June 22, 2013

तुम्हें पता है





















तुम्हें पता है अब मैं ज्यादा बहुत देर तक खुश नहीं रह पता।
ये खुशियाँ मुझे सौतेली सी लगती है।

तुम्हें पता है मेरे चेहरे पे जो लकीरें हैं ये उदासी की नहीं।
रस्साकस्सी है दिल और दिमाग की।

तुम्हें पता है अब प्यार हिसाब पूछ के किया जाता है।
कितने का प्यार कर पाओगे तुम,केवल 40-50 हज़ार तक।

तुम्हें पता है मेरी हथेलियाँ अब भी गर्म रहती हैं।
पर अब ये गरमाहट हथेलीयाँ जलाती हैं।

तुम्हें पता है अब मेरे बाएँ हाथ की तरफ़ कोई नहीं चलता।
मैं सबको दाएँ तरफ रखता हूँ।

तुम्हें पता है अब किसी को मेरी धड़कन सुनायी नहीं देती।
अब सीने से लगके भी कोई इन्हें सुन नहीं पाता।

तुम्हें पता है।

--- अतुल रावत

Saturday, March 23, 2013

Shayari that i remember after getting high


लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है
दुष्यंत कुमार 

--------------------------------------------------------------------------------

तेरे ग़म की डली बना के जुबां पे रख ली है मैंने देखो,

ये क़तरा क़तरा पिघल रही है, और मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ।

-- गुलज़ार
------------------------------------------------------------------------------------

मुझको भी तरकीब सिखा यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोइ तागा टुट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिराह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैनें तो ईक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहे
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे

-- गुलज़ार
---------------------------------------------------------------------------

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल* में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल** शामिल था

तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में

तेरा बे को दबा कर बात करना
वॉव पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं ना खत मिला कोई
बहुत दिन हो, गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं
**गुलज़ार* 


-------------------------------------------------------------------------------

Monday, January 7, 2013

गुलाबी चूड़ियाँ और वो तोडती पत्थर

                 कुछ बातों से अनजाने ही बचपन याद आ जाता है। ऐसी ही है नागार्जुन और निराला जी की ये कवितायें। पता नहीं कौन सी क्लास में पड़ी थी। इतना याद है की आगे गौड़ मैडम इसे समझा के सुना रही थी और मैं चुपचाप इनके संसार में कहीं खो गया था।



गुलाबी चूड़ियाँ
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

~नागर्जुन


वो तोडती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर --
वह तोड़ती पत्थर 

कोई  छायादार
पेड़वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तनभर बँधा यौवन,
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार;
सामने तरु - मालिकाअट्टालिकाप्राकार 

चड़ रही थी धूप
गरमियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गयी

प्रायः हुई दुपहर,
वह तोड़ती पत्थर 

देखते देखामुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्न-तार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोयी नहीं
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार 
एक छन के बाद वह काँपी सुघर,
दुलक माथे से गिरे सीकार,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा --
"मैं तोड़ती पत्थर"


-    निराला